हमारे विपक्षी दल एकजुट होने के लिए क्या-क्या द्राविड़ प्राणायाम नहीं कर रहे हैं? अब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 20 अगस्त को विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं की बैठक बुलाई है। इसके पहले कांग्रेसी नेता कपिल सिब्बल ने अपने घर पर विपक्षी नेताओं का प्रीति-भोज रखा था, जिसमें लगभग सभी दलों के नेता थे, सिवाय सोनिया और राहुल के। उसके पहले ममता बेनर्जी और शरद पवार ने भी विरोधी दलों को एक करने की कवायद की थी। यों भी पूर्व प्रधानमंत्री ह.डो. देवगौड़ा भी विरोधी नेताओं से बराबर मिलते जा रहे हैं।
संसद के दोनों सदनों को ठप्प करने और हुड़दंग मचाने में विपक्षी नेताओं ने जिस एकजुटता का प्रदर्शन किया है, वह अपूर्व है लेकिन इन सब नौटंकियों का नतीजा क्या निकलेगा? इसमें शक नहीं कि विपक्षी दल जिन मुद्दों को उठा रहे हैं, उनका जवाब देने में सरकार कतरा रही है और उसका बर्ताव लोकतांत्रिक बिल्कुल नहीं है। यदि उसमें लचीलापन और अंहकारमुक्तता होती तो वह पेगासस-जासूसी और किसान समस्या पर विपक्ष के साथ बैठकर नम्रतापूर्वक सारे मामले को सुलझा सकती थी लेकिन पक्ष और विपक्ष दोनों दंगलप्रेमी बन चुके हैं लेकिन असली सवाल यह है कि क्या विपक्ष एकजुट हो पाएगा और क्या वह मोदी सरकार को हटा सकता है?
पहली बात तो यह कि देश के कई राज्यों में विपक्षी दल आपस में ही एक-दूसरे से भिड़े हुए हैं। जैसे उप्र में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बसपा में तथा केरल में कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस में सीधी टक्कर है। कुछ अन्य राज्यों में विरोधी दल ताकतवर हैं लेकिन वे तटस्थ हैं। दूसरा, विरोधी दलों के हाथ कोई ऐसा मुद्दा नहीं लग रहा है, जो आपात्काल या बोफोर्स या राम मंदिर या भारी भ्रष्टाचार— जैसा हो, जिन्होंने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंहराव या मनमोहनसिंह के खिलाफ जनमत तैयार कर दिया हो और विरोधी दलों को एक कर दिया है। तीसरा, इस समय विरोधी दलों के पास कोई जयप्रकाश नारायण जैसे सर्वस्वत्यागी नेता नहीं है। उनके पास विश्वनाथप्रतापसिंह की तरह भाजपा में कोई बागी नेता भी नहीं है।
विरोधी दलों के पास अटलबिहारी वाजपेयी की तरह सर्व-स्वीकार्य उदारपुरुष भी कोई नहीं है। उनके पास चंद्रशेखर या लालकृष्ण आडवाणी की तरह भारत-यात्रा करनेवाला भी कोई नहीं हैं। यह ठीक है कि नरेंद्र मोदी का राज 40 प्रतिशत से भी कम वोटों पर चल रहा है और भाजपा का भी कांग्रेसीकरण हो चुका है। मोदी सरकार में देश की समाज-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन करने की क्षमता भी नहीं है। वह नौकरशाहों पर निर्भर है। लेकिन 60 प्रतिशत वोटोवाले विपक्षी दल ऐसे लगते हैं, जैसे कई लकवाग्रस्त मरीज मिलकर किसी पहलवान को पटकने की कोशिश कर रहे हैं।
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